स्वप्न लगभग सब देखते हैं, मैं भी और आप भी. याद रहे ना रहे. सामान्यत: स्वप्न के दो रूप होते हैं, एक जो चेतनावस्था में देखा जाता है. दूसरा जो अवचेतनास्था में देखा जाता है. चेतनावस्था में देखा गया स्वप्न कल्पना कहलाता है, उम्मीदों और ख्वाहिशों से जुड़ा हुआ. अवचेतनावस्था में देखा गया स्वप्न उम्मीदों और ख्वाहिशों से परे मनोवैज्ञानिक यथार्थ पर निर्भर करता है. यह सामान्य: निद्रावस्था में देखा गया स्वप्न होता है. कल्पनाओं को याद रखने के मुकाबले निद्रावस्था में देखे गये स्वप्न को याद रखना मुश्किल होता है. यह कल्पनाओं से भी परे, जगत के सामान्य और प्रचलित चलन से भी परे, कुछ भी हो सकता है. ऐसे में उसकी जानकारी और उसका आकलन महत्त्वपूर्ण लगा. चूँकि मनुष्य के जीवन में स्वप्न की बहुआयामी भूमिका होती है. इसी को ध्यान में रखकर मैंने ब्लॉग के माध्यम से इसे व्यक्त करने का उद्देश्य स्वीकार किया है.
मुझे अपनी निद्रावस्था में देखा गया स्वप्न याद नहीं रहता है. ऐसे में लोगों से पूछकर, सुनकर ब्यौरों के साथ जो कथा मिलती है उसी को इस ब्लॉग में प्रस्तुत किया करूँगा. आप सभी के स्वप्न टिप्पणियों व सुझावों के साथ आमंत्रित है. आइये मिलकर स्वप्न जगत का रहस्य खोलें. आरंभ करता हूँ इस स्वप्न कथा से….

Tuesday, August 26, 2008

गोरे-गोरे चाँद से मुख पर

किसी प्राइवेट कंपनी के एक एकाउन्टेंट से बात हुई. अनायास अपना एक स्वप्न सुनाया जिसे कई वर्ष पहले उसने देखा था. लेकिन आज भी उसे याद है. बेशक याद रखने की वजह उसका पड़ने वाला प्रभाव है. खैर, स्वप्न उसने कुछ यूँ बताया:
दिल्ली के नेहरू पार्क में मैं लेटा हुआ था. कब, क्यों और कैसे जाके लेट गया, पता नहीं. पेड़ों पर बैठे-उड़ते पक्षियों को देख रहा था. एकाएक काले बादल चारो तरफ छा गए. तेज बारिश से बचने के लिए कई लोग इधर-उधर भागने लगे. एक लड़की दिखी. उसका चेहरा बालों से ढका हुआ था. वह भागनेवालों में शामिल नहीं थी. वह हरे-भरे घास पर बैठी थी. आसमान को देख रही थी और हवा खा रही थी. हवाओं ने बालों को सुंदर चेहरे से दूर कर दिया. एकदम गोरी लेकिन अकेली. उसकी सूरत देखते ही मैं गाना गाने लगा.
गोरे-गोरे चाँद से मुख पर काली काली आँखें हैं
देखके जिनको नींद उड़ जाए वो मतवाली आँखे हैं.
मैं गीत गाता रहा और उसे देखता रहा कि अचानक वह लड़की चलकर मेरे पास आ गई. उसके आते ही मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई. और झट से नींद से खुल गई. बगल में परेशान मम्मी मेरे दिल की धड़कनों को नाप-तोल रही थी.

इस आकर्षक स्वप्न को सुनाने के बाद उस सज्जन ने बताया कि
वह बाथरूम में भी नहीं गाता है. गाना उसे आता ही नहीं.
नए फिल्म और नए गाने ही उसे पसंद आते हैं, फिर भी जाने क्यों ये दो पंक्ति उसे आज भी याद है.
उसने बताया कि स्वप्न लगभग 10 वर्ष पुरानी है. स्वप्न अक्सर देखता है लेकिन जागते ही उसे कुछ याद नहीं रहता.
नेहरू पार्क को बाहर से तो देखा था, अंदर से नहीं. अलबत्ता इस स्वप्न के बाद एकबार पार्क के अंदर यूँ सैर किया, जैसे बहुत जरूरी हो.
स्वप्न शादी से पहले देखा था, पत्नी उसकी खूबसूरती के सामने कुछ भी नहीं है, यह भी सज्जन ने बेहिचक बताया.

Friday, August 22, 2008

जीवन स्वप्न की गति में

राजेश जोशी की कविता “प्रजापति” का एक अंश है
मैं चाहता हूँ
कि कविता के भीतर फैली आसमान की टेबिल पर
जब सूरज के साथ चाय पी रहा होऊँ
एक विशाल समुद्र की तरह दिखे
मेरा कप.
यह एक जागते हुए कवि का स्वप्न है. इसमें आकांक्षा है, उम्मीद है परन्तु जीवन की उपस्थित गतिशील यथार्थ से इसका कोई संबंध नहीं है. ऐसे में एक सोते हुए बच्चे का वह स्वप्न जिसमें वह भी सक्रिय हो, विशिष्ट हो जाता है. 8-9 साल के एक बच्चे ने अपना स्वप्न इस तरह सुनाया :
घर के छत पर पतंग उड़ाने की कोशिश कर रहा था, पतंग उड़ ही नहीं रहा था. कई पतंग फट गए. आखिरी पतंग उड़ाने लगा कि तेज हवा चली. पतंग आसमान की तरफ भागने लगा. धागे से वह संभल नहीं पा रहा था भागता ही जा रहा था. कि अचानक पतंग के धागे से लिपटकर मैं भी आसमान में उड़ने लगा. किसी हवाई जहाज की तरह हवाओं में सैर करने लगा. पतंग आगे-आगे और मैं उसके पीछे-पीछे. मैं हवा में उड़ रहे दूसरे पतंगों को पकड़-पकड़ के इकट्ठा करने लगा. जो भी पतंग सुंदर लगता मैं झट से उसके पास पहुँच जाता और धागे से तोड़कर अपने पास रख लेता था. बहुत सारे पक्षी आसपास मुझे घूर-घूर के देख रहे थे. एक मोर मेरे पीठ पे सवार हो गया. कि अचानक मम्मी मेरी हाथों को पकड़कर छत से मुझे घर के अंदर ले जाने लगी. ढेर सारी किताबें पसरी हुई देखते ही मेरी नींद खुल गई.
इस छोटी सी स्वप्न कथा में कुछ खास बातें हैं.
उस बच्चे ने कभी पतंग उड़ाया ही नहीं है.
उड़ाने की असफल कोशिश एक-दो बार अवश्य की है.
बच्चे की माँ के अनुसार उड़ता हुआ पतंग देखना उसे बहुत अच्छा लगता है. इतना अच्छा कि पढ़ाने या खिलाने के लिए उसे छत से घसीट कर नीचे लाना पड़ जाता है.