स्वप्न लगभग सब देखते हैं, मैं भी और आप भी. याद रहे ना रहे. सामान्यत: स्वप्न के दो रूप होते हैं, एक जो चेतनावस्था में देखा जाता है. दूसरा जो अवचेतनास्था में देखा जाता है. चेतनावस्था में देखा गया स्वप्न कल्पना कहलाता है, उम्मीदों और ख्वाहिशों से जुड़ा हुआ. अवचेतनावस्था में देखा गया स्वप्न उम्मीदों और ख्वाहिशों से परे मनोवैज्ञानिक यथार्थ पर निर्भर करता है. यह सामान्य: निद्रावस्था में देखा गया स्वप्न होता है. कल्पनाओं को याद रखने के मुकाबले निद्रावस्था में देखे गये स्वप्न को याद रखना मुश्किल होता है. यह कल्पनाओं से भी परे, जगत के सामान्य और प्रचलित चलन से भी परे, कुछ भी हो सकता है. ऐसे में उसकी जानकारी और उसका आकलन महत्त्वपूर्ण लगा. चूँकि मनुष्य के जीवन में स्वप्न की बहुआयामी भूमिका होती है. इसी को ध्यान में रखकर मैंने ब्लॉग के माध्यम से इसे व्यक्त करने का उद्देश्य स्वीकार किया है.
मुझे अपनी निद्रावस्था में देखा गया स्वप्न याद नहीं रहता है. ऐसे में लोगों से पूछकर, सुनकर ब्यौरों के साथ जो कथा मिलती है उसी को इस ब्लॉग में प्रस्तुत किया करूँगा. आप सभी के स्वप्न टिप्पणियों व सुझावों के साथ आमंत्रित है. आइये मिलकर स्वप्न जगत का रहस्य खोलें. आरंभ करता हूँ इस स्वप्न कथा से….

Sunday, May 10, 2009

किसी के घर में कुछ किताबें कुछ जीवन खास

सामान्यतया स्वप्न दिलचस्प ही होते हैं। फिर भी आज जो एक सज्जन का सुनने को मिला वह बहुत ही अच्छा लगा। उस सज्जन ने अपना स्वप्न कुछ यूँ बताया :
मेरा एक मित्र जब मेरे घर से वापस जाने के लिए बाहर निकला तो देखा बाहर उसकी बाईक नहीं है। उसे याद आया कि एक तीसरा मित्र थोड़ी देर के लिए कहीं ले गया है। अचानक वह तीसरा मित्र आ गया। बाईक पार्क की और तेजी से चलता हुआ कुछ दूर सामने के एक घर में चला गया। मैं और मेरा मित्र भी उस घर की ओर चल परे। यह जानने के लिए बगैर कुछ बताए इतनी तेजी से वहां जाने की क्या जरूरत थी। उस घर के पास पहुंचते ही देखा घर के बाहर छोटे से जमीन को बगीचे की तरह खुबसूरत फूलों से संवार रखा था। उन खुशबूओं से गुजरते हुए जैसे ही घर में प्रवेश किया खटिए पर एक बुजुर्ग लेटी हुई थी। बहुत बीमार जैसी लग रही थी। उम्र भी कुछ कम नहीं। मेरी दादी से भी बड़ी। उस कमरे के एक कोने में कुछ बाँस के टुकड़े थे जिससे सामान्य: किसी बैनर का पोल बनाया जाता है। पेंटिंग के लिए कुछ ब्रश, कुछ रंग, कुछ कागज वगैरह रखा हुआ था। अचानक अंदर से कुछ डांट जैसी आवाज आई। दूसरे कमरे में गए। तीन पुलिस वाले, एक वह मित्र जो तेजी से गया था साथ ही एक और युवक जो बहुत दुबला पतला, दाढ़ी बढ़ा हुआ, बनियान और धोती में निश्छल। फर्श पर चारो तरफ ढेर सारी किताबें फैली हुई थी।
मार्क्स, ऐन्गिल्स, लेनिन, शेक्सपीयर, तोल्सताय, गोगोल, बाल्जाक,गोर्की, पास्तरनाक, प्रेमचंद, कबीर, तुलसीदास, मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्यायन आदि न जाने कितनी ढेर सारी किताबें। किताबें इतनी और बेहतरीन। देखते ही मन खुश हो गया। और अचानक बोल पड़ा, वाह कितनी अच्छी अच्छी किताबे, जिसके लिए मैं न जाने कहां कहां भटकता हूं। मेरी बात सुनते ही वह पुलिस वाला मेरे पास आया और लगा चिल्लाने और कहने कि इन किताबों को अपने पास रखना गैर कानूनी है। तुम्हारे पास भी है क्या?
मैं ये समझाने की कोशिश करने लगा कि आज कम्युटर के समय में इन किताबों को घर में इस तरह रखना और पढ़ना कितना महत्वपूर्ण है। पुलिस वाले ने समझना तो दूर मेरे बोलने पर ही प्रतिक्रिया किया। उस पुलिस वाले के चेहरे और प्रतिक्रिया को देख सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आ गया। फौरन मैंने अपने जेब से कलम निकाला, उसे खोला और उसके नीब को जोड़ से उसके गले में ठूंस दिया। अचानक नींद खुल गई।

सपना देखने वाला सज्जन एक इंजीनियर है। वह तोल्सताय, मुक्तिबोध, बाल्जाक, पास्तरनाक आदि का नाम भी नहीं जानता, किताब तो बहुत दूर की बात है। जिस चलचित्र की तरह उसने स्वप्न सुनाया उसने बताया कि ठीक इसी तरह देखा था। साथ ही ये कि स्वप्न देखे कई दिन गुजर गए लेकिन उस दढ़ियल लड़के का प्रभाव मेरे मन में अभी भी है। जाने क्यों मेरा एक मन कहता है कि मुझे भी ऐसा ही होना चाहिए था।
खैर इस स्वप्न दर्शक के विचारों पर आप विचार कीजिए।