मैं चाहता हूँयह एक जागते हुए कवि का स्वप्न है. इसमें आकांक्षा है, उम्मीद है परन्तु जीवन की उपस्थित गतिशील यथार्थ से इसका कोई संबंध नहीं है. ऐसे में एक सोते हुए बच्चे का वह स्वप्न जिसमें वह भी सक्रिय हो, विशिष्ट हो जाता है. 8-9 साल के एक बच्चे ने अपना स्वप्न इस तरह सुनाया :
कि कविता के भीतर फैली आसमान की टेबिल पर
जब सूरज के साथ चाय पी रहा होऊँ
एक विशाल समुद्र की तरह दिखे
मेरा कप.
घर के छत पर पतंग उड़ाने की कोशिश कर रहा था, पतंग उड़ ही नहीं रहा था. कई पतंग फट गए. आखिरी पतंग उड़ाने लगा कि तेज हवा चली. पतंग आसमान की तरफ भागने लगा. धागे से वह संभल नहीं पा रहा था भागता ही जा रहा था. कि अचानक पतंग के धागे से लिपटकर मैं भी आसमान में उड़ने लगा. किसी हवाई जहाज की तरह हवाओं में सैर करने लगा. पतंग आगे-आगे और मैं उसके पीछे-पीछे. मैं हवा में उड़ रहे दूसरे पतंगों को पकड़-पकड़ के इकट्ठा करने लगा. जो भी पतंग सुंदर लगता मैं झट से उसके पास पहुँच जाता और धागे से तोड़कर अपने पास रख लेता था. बहुत सारे पक्षी आसपास मुझे घूर-घूर के देख रहे थे. एक मोर मेरे पीठ पे सवार हो गया. कि अचानक मम्मी मेरी हाथों को पकड़कर छत से मुझे घर के अंदर ले जाने लगी. ढेर सारी किताबें पसरी हुई देखते ही मेरी नींद खुल गई.इस छोटी सी स्वप्न कथा में कुछ खास बातें हैं.
उस बच्चे ने कभी पतंग उड़ाया ही नहीं है.
उड़ाने की असफल कोशिश एक-दो बार अवश्य की है.
बच्चे की माँ के अनुसार उड़ता हुआ पतंग देखना उसे बहुत अच्छा लगता है. इतना अच्छा कि पढ़ाने या खिलाने के लिए उसे छत से घसीट कर नीचे लाना पड़ जाता है.
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